चोटी की पकड़–93
"जाहिद, शराबेनाज से जब तक वजू न हो,
काबिल नमाज पढ़ने के मसजिद में तू न हो।
पहलू से दिल जुदा हो तो कुछ गम नहीं मुझे,
ऐ द - दिल जुदा मेरे पहलू से तू न हो।
वह गुमशुदा हूँ मैं कि अगर चाहूँ देखना,
आइना में भी शक्ल मेरी रूबरू न हो।
शाखें उसी की हैं यही जड़ है फ़साद की,
पहलू में दिल न हो तो कोई आरजू न हो।
मसजिद में मैंने शेख को छेड़ा यह कहके आज,
मय लाऊँ मैकदे से जो आबे-वजू न हो।
सारी दमक - चमक तो इन्हीं मोतियों से है,
आँसू न हों तो इश्क में कुछ आबरू न हो।"
फिर गाया-
"बाजी कहूँ बैरन, बिखभरी सवत बाँसुरी
अधर-मधुर ध्वनि नेक सुरन सों
कूक-कूक तड़पाय, सखी री, वाकी
गाँस फाँस जिय हूक। छन आँगन, छन
चढ़त अटा पर, कर मल-मल
पछितात सेज पर,
बैरन सवत सताये चाँद,
रह-रहके तान नयी फूँक।"
ठुमरी का रंग जमा। राजा साहब ने प्रभाकर से गाने का अनुरोध किया। प्रभाकर ने गाया-
"प्रथम मान ओंकार।
देव मान महादेव,
विद्या मान सरस्वती
नदी मान गंगा।
गीत तो संगीत मान,
संगीत के अक्षर मान,
बाद मान मृदंग,
निरतय मान रंभा।
कहें मियाँ तानसेन,
सुनो हो गोपाल लाल,
दिन को इक सूरज मान,
रैन मान चंदा।"